Friday, November 14, 2008

एक नेता की दादागिरी

सही घटना पर आधारित
प्रकाश चंडालिया
13 नवंबर की रात बड़ा अजीब वाकया हुआ। कोलकाता महानगर की तंग सड़कों पर गाड़ी वालों के साथ राहगीरों के झगड़े पल-पल की घटना की तरह हैं। बात-बेबात लोग पंगे ले लेते हैं और बात ड्राइवर की पिटाई तक पहुंच जाती है। मामला पुलिस तक जाने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगता।हमारे साथ भी कल कुछ ऐसा ही होना लिखा था। हिन्दी और राजस्थानी के मूधॆन्य कवि पद्मश्री विभूषित श्री कन्हैयालाल सेठिया की शोकसभा से लौट रहा था। वहां एक पुराने साथी मिल गए। भाई ने लौटते में लिफ्ट देकर एहसान किया। उनको दरअसल, यह दिखलाना था कि वे भी अब गाड़ीवाले हो गए हैं। यह अंदाजा मुझे उनके हावभाव से लगा। उनकी निजी औकात गाड़ी लेने लायक बनी नहीं थी, यह मैं इसलिए अच्छी तरह जानता हूं क्योंकि भाई के पास कोई ठाई कमाई का जरिया है नहीं। कई सालों से उनसे परिचित हैं मुझ जैसे कई लोग, फिर भी किसी को आज तक पता नहीं कि भाई की कमाई का जरिया क्या है। बहरहाल, उनकी किस्मत वे भोगें...। पर मेरे रिपोटर दिल ने यह पड़ताल करने में जरा भी वक्त नहीं लगाया कि आखिर उनके दरवाजे तक गाड़ी आई कैसे। भई, उनकी बेटी अभी नगर निगम में पाषॆद हैं। चुनकर आए तीन साल हुए हैं। तो भाई तीन साल में कोई नेता गाड़ी भी ना बना सके तो फिर राजनीति करना घाटे का सौदा नहीं होगा क्या? वैसे इस भाई ने मुझे कई बार कहा है कि उन्हें अब एक नया फ्लैट भी खरीदना है। मेरी तरह आप को भी इस पर चौंकने की जुरॆत नहीं होनी चाहिए। क्यों ठीक कहा ना मैंने? क्यूंकि यह तो होना ही था? निगम के पाषॆद को पगार में क्या पगार मिलती है, यह सभी जानते हैं। लेकिन महानगर में पाषॆद होना और वह भी व्यस्त व्यापािरक अंचल में, किसी बड़े कारखाने के मालिक की कमाई से कम फायदे मन्द तो होता नहीं है...। सो , चलिए, यह तो उनके परिचय का एक हिस्सा है।तो बात हम कर रहे थे, सड़क हादसों की और गाड़ी चलाने वालों की पिटाई की। तो बात १३ नवंबर की है। शाम के वक्त हम कोलकाता में सेठियाजी की शोकसभा से लौट रहे थे। यहां से हम दोनों को ही सत्संग के किसी अनुष्ठान में जाना था। बीच रास्ते में उन नेताजी टाइप प्राणी का घर भी था। सो भाई ने कहा, यार आपकी भाभी भी तैयार हैं, सो उन्हें भी साथ ले लेते हैं। तथास्तु-मैंने कहा। भाभी भी बैठ गईं। अच्छे मूड के साथ गाड़ी में हम बातें करते बढ़ रहे थे िक बड़ाबाजार के बांगड़ बिलि्डंग के समीप धीमी गति से चल रही हमारी गाड़ी के सामने एक कोई ३० साल का युवक पैदल रास्ता पार कर रहा था। उसने गाड़ीचालक को थोड़ा आगे बढ़ जाने को कहा। पाषॆद का बाप गाड़ी में बैठा हो तो किसकी मजाल जो कुछ कह डाले...रास्ता अपने बाप का जो ठहरा...। दो-चार पल ही बीते होंगे िक गाड़ी चालक से उसकी कहासुनी तेज हो गई। मेरे नेताजी दोस्त ने गाड़ी में बैठे-बैठे ही उस लड़के को चमकाने की कोशिश की, तो जवाब भी तीखा ही मिला। नेताजी के चालक को इतने में तैश आ गया। दरवाजा खोलकर वह बाहर कूदा और बीच सड़क पर उस लड़की की धुनाई शुरु कर दी। लड़का और चालक दोनों समान उम्र के थे। पटका-पटकी चलती रही। भीड़ जमा होगई। नेताजी भी उतरे और मजबूरन सामाजिकतावश मुझे भी उतरना पड़ा। दो-चार मिनट में बांगड़ बिल्डंग के समीप की रवींद्र सरणी का रास्ता अखाड़े में तब्दील हो गया। उस लड़के के साथ चल रही कुश्ती में नेताजी की गाड़ी के चालक का माथा फट गया और खून से नेताजी के कुरते की बांह भर गई। भीड़ में से कुछ ने नेताजी का साथ दिया तो कुछ ने उस स्थानीय लड़के का। किसी तरह हमलोगों के बीच बचाव से दोनों को छुड़ा लिया गया। अब शुरु हुआ, अपने-अपने लोगों को बुलाकर हिंसाब बराबर करने का खेल। नेताजी और उस लड़के ने अपने अपने मोबाइल से अपने खास लोगों को झमेले में पड़ने के लिए न्यौता दिया। लड़के का साथ देने कोई आता, उसके पहले ही नेताजी के ८-१० लड़के पहुंच गए और फिर नेताजी के इशारे पर तीन चार लोगों की कॉलर पकड़ कर अपने कब्जे में कर लिया। नेताजी की हिदायत पर उन दो लोगों को भी जबरिया कब्जे में लिया गया, जिन्होंने झमेले के समय नेताजी का विरोध करने की जुररत की थी। मेरा मानना है कि इनका कोई कसूर था नहीं। यहां बताना जरूरी है कि नेताजी की पत्नी यानी पाषॆद की माताजी इस दौरान गाड़ी में तनावग्रस्त मुद्रा में बैठी थीं। उन्हें अकेला देख उनका तनाव दूर करने मैं वहां पहुंचा तो देखा, कुछ लोग उनके सामने विनम्र भाव से इस मुद्रा में खड़े थे, जैसे इस घटना के लिए वे ही दोषी हैं। बहरहाल, नेताजी और उनके गुरगे उन तीन-चार लोगों को पकड़ थाना लेते गए। इस दौरान नेताजी ने मुझे समय नष्ट कर, सत्संग में चले जाने का अनुरोध किया। मैं भला क्या करता...मैं सत्संग में चला गया। दो घंटे बाद वहां से निकलकर मैंने नेताजी महाराज को फोन किया । मेरा मूड उन्हें यह समझाने को था कि जो हुआ सो हुआ, उस लड़के को छुड़वा दीजिए। पर नेताजी भला क्यों मानने वाले थे। उन्होंने कहा, साले को जमकर पिटवा दिया है। नहीं पिटवाते तो वहां नाक कटाई हो जाती। मैं मन मसोसकर चुप रहा। घर लौटा, नींद नहीं आई। सारी रात बेचैन रहा। यह सोचकर कि हम घर से क्या सोचकर निकलते हैं, रास्ते में क्या हो जाता है। वह लड़का तैश जरूर खा गया था, पर उसका आशय नेताजी के चालक का खून निकालता हरगिज नहीं था।बहरहाल, दूसरे दिन सुबह मैंने नेताजी को दोबारा यह सोचकर फोन किया कि बेचारे को किसी तरह छुड़वा दिया जाए। बेकार केस बनेगा और लड़का पुलिस वालों के हत्थे पड़ा रहेगा। नेताजी मेरे निवेदन पर जरा भी नहीं पिघले। बोले, साले को नन-बेलेबल केस दिलवा दिया है। चालक का खून और उनके इशारे पर रात को ही तैयार हुआ मेडिकल रिपोटॆ ने इसमें अहम भूमिका निभाई। नेताजी अपनी नेतागिरि में मस्त हो गए हैं, लड़का थाने में पड़ा सड़ रहा है। क्या ऐसे लड़के ही भविष्य में अपराधी नहीं बनते। मेरा यह सवाल आपकी साॐी में उस नेताजी से है। मुझे मालूम है, मेरा नेता दोस्त इस ब्लॉग पर कभी नहीं आएगा, पर यदि इस जैसा मिजाज रखने वाले नेता टाइप लोग इस पोस्ट को पढ़कर नेतागिरि के नाम पर गुंडागरदी बन्द कर दें, तो लिखना सारथक हो जाएगा। बहरहाल, मैं अपने आप को भी दोषी मानता हूं कि दोस्त नेता को नसीहत नहीं दे सका। एक बार तो मुझे यह भी लग रहा है कि उसने बात इसलिए बढ़ाई कि गाड़ी में उसकी बीवी भी थी। भला कोई नेता अपनी बीवी के सामने हार सकता है ? और वह भी पाषॆद का बाप होकर...।